मेवाड़ क्षेत्र, अब राजस्थान राज्य का हिस्सा है, लेकिन इसमें वर्तमान भारत के गुजरात, मध्य प्रदेश और हरियाणा के भी कुछ हिस्से शामिल थे। मेवाड़ की हूकुमत उदयपुर साम्राज्य में ही थी, और पूर्वकाल में मेवाड़ की राजधानी उदयपुर ही थी। साम्राज्य के देवता के रूप में भगवान शिव को ही श्री मेधपतेश्वर [एकलिंग नाथ] नाम दिया था। मेवाड़ का नाम भी देवता मेधपतेश्वर से ही मिला था।
मेवाड़ क्षेत्र, उत्तर पश्चिम में अरावली पर्वत श्रेणी, उत्तर में अजमेर, दक्षिण में गुजरात और राजस्थान के वागड क्षेत्र, दक्षिण-पूर्व में मध्य प्रदेश राज्य का मालवा क्षेत्र और पूर्व में राजस्थान का हाडोती क्षेत्र के बीच स्थित है। इससे ऐसा लगता है कि भारत में विदेशी आक्रमण को अनुमति देने में या फिर रोकने में, क्षेत्र ने एक सामरिक भूमिका निभाई थी।
अलाउद्दीन खिलजी, खिलजी वंश के दूसरे शासक थे, और अपने हिजड़ा साथी तथा सेना के जनरल मलिक कफूर ने इस देश में सनातन धर्म को फिरौती के लिये रखा हुआ था। मेवाड़ के राजपूत जोकि राजधानी चित्तौड़गढ़ में सत्तारूढ़ थे, उनको चौदहवीं सदी के शुरू में खिलजी के हाथों पीड़ित होना पड़ा था। मेवाड़ पर अलाउद्दीन खिलजी की विजय के बाद रणथम्भौर, गुजरात, और उत्तर भारत के शेष भारतीय राज्यों के मन में डर बैठ गया था।
मेवाड़ के राजा महाराणा मोकल की साल १४३३ में अपने दो भाइयों चाचा और मेरा द्वारा हत्या कर दी गई थी। समर्थन की कमी के कारण, चाचा और मेरा को राज्य से पलायन करना पड़ा था। राणा कुंभा महाराणा मोकल की पत्नी सौभाग्या देवी का बेटा था, और सौभाग्या देवी मारवाड़ के राज्य में रूंकोट की पंवार प्रमुख जैतमल संखला की बेटी थी।
जब राणा कुंभा मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। प्रारंभ में, राणा कुंभा को चतुरता से मंडोर के रणमल राठौर ने सहायता प्रदान की थी। मालवा के सुल्तान मुहम्मद खिलजी राणा कुंभा के साथ युद्ध में लगा हुआ था, और अंत में राणा कुंभा से हार गया था। 1440 ईस्वी में मालवा और गुजरात की संयुक्त सेनाओं पर उसकी शानदार जीत मनाने के लिये, राणा कुंभा ने एक प्रसिद्ध 9 मंजिला 37 मीटर उँचा 'विजय स्थम्भ', चित्तौड़गढ़ में बनवाया जिसे 1448 ईस्वी में पूरा कर लिया गया था।
जब मध्य भारत के मान सिंह तोमर, दक्षिण भारत के देव राय द्वितीय और पूर्वी भारत के कपिलेंद्रदेव ने भारत में सनातन धर्म के संरक्षण के लिये एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। पंद्रहवीं सदी में उत्तरपश्चिम भारत में मेवाड़ राज्य राणा कुंभा के नेतृत्व में सनातन धर्म के पुनरुत्थान के लिए अगुआ था। राणा कुंभा एक बहुत लंबा और शक्तिशाली व्यक्तित्व था, जिसने मेवाड़ ध्वज को हमेशा ऊँचा रखा था।
मेवाड़ के आस-पास मालवा के महमूद खिलजी, गुजरात के कुतबुद्दीन, नागौर के शम्स खान और मारवाड़ के राव जोधा जैसे सरीखे दुश्मनों से राणा कुंभा को अपने राज्य की रक्षा की एक बड़ी जिम्मेदारी थी। इसीलिए सामरिक स्थितियों को ध्यान में रखते हुये, राणा कुंभा ने अपनी राजधानी के उत्तर पश्चिमी दिशा में एक नया किला बनवाया था। ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के जैन राजकुमार सम्पराती द्वारा बनाया गया एक पुराने महल के स्थल का चयन किया था। यह किला आज उदयपुर से ६४ किमी उत्तर पश्चिम में स्थित है और उनके नाम के बाद कुंभलगढ़ नाम से जाना जाता है। राणा कुंभा ने इसे १४४३ से १४५८ के बीच, एक प्रसिद्ध वास्तुकार मंडन की समर्थ सहायता से बनवाया था।
यह किला राजस्थान में सबसे ऊँची एक अभेद्य पहाड़ी पर स्थित है, जिसकी ऊँचाई समुद्र स्तर से १०७५ मीटर है। यह उदार संरचना प्रतिष्ठा, वीरता और भव्यता की गाथा है। कुंभलगढ़ का निर्माण वास्तु शास्त्र के प्राचीन नियमानुसार किया गया था। चढ़ाई चढ़ते हुये जब सकन्दनुमा किले पर दृष्टि पड़ती है तो वो एक अविस्मरणीय दृश्य होता है। शिखर पर पहुँचकर ऐसा महसूस होता है कि बादलों ने उन्हें घेर लिया है। किले के ऊपर से देखने पर दृश्य और भी अधिक अद्भुत लगता है। एक तरफ मारवाड़ और दूसरी तरफ मेवाड़ के दृश्य इस सामरिक स्थान से देखे जा सकतें हैं।
यह अभी भी एक आश्चर्य है कि इतनी ऊंचाई पर किले की निर्माण-सामग्री कैसे पहुँचाई गई थी। कुम्भलगढ़ किला कभी जीता नहीं जा सका था और इसे 'अपराजित किले' के रूप में जाना जाता है। राणा कुंभा एक 'अपरास्त राजा' था। संकट की अवधि के दौरान मेवाड़ शासकों के लिए यह किला एक अभेद्य ठिकाने के रूप में उपयोग होता था।
कुम्भलगढ़ किले की दीवार पंद्रह फुट चोड़ी तथा 38 किमी से अधिक विस्तृत है। चीन की महान दीवार के बाद दूसरी निरंतर सबसे लंबी दीवार है। इन दोनों संरचनाओं को उपग्रह द्वारा छवियों में देखा जा सकता है। कुंभलगढ़ किले में सात दृढ़ प्रवेश द्वार हैं।
किले में दक्षिण से प्रवेश करतें हैं, और इस प्रवेश द्वार का नाम आरित पोल है। इसके बाद हल्ला पोल, हनुमान पोल, राम पोल और विजय पोल प्रवेश द्वार हैं। शीर्ष पर महलनुमा परिसर में पहुँने से पहले तीन प्रवेश द्वार और हैं, जोकि भैरों पोल, निम्बू पोल और पग्रह पोल जाने जाते हैं। इअनके इलावा एक और प्रवेश द्वार दानीवत्ता के रूप में जाना जाता है, जोकि पूर्व में स्थित है। यह प्रवेश द्वार मेवाड़ क्षेत्र को मारवाड़ के साथ जोड़ता है।
यह फाटक किले के मुख्य दीवार पर बनाया गया है, और इसका पूरे परिसर में प्रवेश के लिये प्रयोग होता है। इसके बाद राम पोल एक मुख्य द्वार है जिसके माध्यम से परिसर के अंदर जा सकते हैं। हनुमान पोल कुंभलगढ़ किले के लिए एक महत्वपूर्ण द्वार है।
एक दिलचस्प जनकथा इस द्वार के साथ जुड़ी हुई है। जब भी राणा कुंभ इस किले की दीवार का निर्माण शुरू करवाते, संरचना टूट कर बिखर जाती थी। हर बार जब निर्माण-कार्य शुरू होता, संयोगवश वहीं ढ़ह जाता था। व्याकुल राणा ने एक आध्यात्मिक गुरू से संपर्क किया, जिन्होंने उन्हें एक मानव बलि का मशवरा दिया। राणा ने निर्देश दिया कि जो राज्य की मदद करने को तैयार हो, वो एक स्वयंसेवक से होना चाहिए।
जब यह बात फैल गई, तब कुछ दिनॊं कोई भी आगे नहीं आया। फिर एक दिन एक सैनिक स्वेच्छा से मेवाड़ के लिये अपना जीवन बलिदान करने के लिए तैयार हो गया। और यह सुनिश्चित करने के लिए कि राणा कुंभा द्वारा बनाई जा रही किले की दीवार घेराबंदी का सामना करने के लिए सक्षम हों।
गुरू की इच्छाओं के अनुसार, महा बलिदान के पुण्यस्मरण के लिये, बलिदान की जगह पर, किले के मुख्य द्वार का निर्माण किया गया था, और हनुमान की एक छवि गेट के पास ही निहित की थी।
इस फाटक के पास दो हनुमान छवियाँ हैं। जिनमें से एक बारह फुट लम्बी है और दुसरी किले की दीवार पर एक सजाई हुई पट्टिका खिड़की में निहित है। श्री हनुमानजी की दोनों मूर्तियों मांडवपुर से राणा कुंभा द्वारा लाई गई थीं।
आध्यात्मिक गुरू के कहने पर स्थापित श्री हनुमान देवता भव्य एवं प्रभावशाली है। वो कुंभलगढ़ किले के अभिभावक ही नहीं, अपितु भारत सनातन धर्म के भी हैं। इन देवता की विशेषता है कि उनके बाएं हाथ में युद्ध हथियार है। यह हथियार सामान्य रूप से भगवान हनुमान के हाथों में कहीं नहीं देखा जाता है। खट्वाङ्गम नाम से जाना जाने वाला हथियार भगवान शिव के हाथों में भी देखा जाता है। संभवतय मेवाड़ राजवंश अपने वंश देवता शिवजी की पूजा एकलिंग के रूप में करतें थे। तभी भगवान हनुमान को भी राणा कुंभा द्वारा यहां यह हथियार दिया गया था।
भगवान दाहिने हाथ की हथेली ऊपर किये हुये, और कुछ पकड़े हुये हैं। और वो बाज़ूबन्द पहने हुए है। भगवान दोनों कलाईयों में कंगन पहने हुये हैं, प्रभु के दोनों कमल जैसे पैरों में पायल और गुंगरू बँधे हुये है। प्रभु की पूंछ [संयोग से भगवान हनुमान का एक हथियार भी है] बहुत लम्बी है जोकि सिर से पीछे उपर होते हुये बाईं ओर से नीचे गिर जाती है। रूद्राक्ष की बनी एक महान लंबी माला है, जोकि बाई ओर से मुड़ती हुई भगवान के पीछे चली जाती है। भगवान ने एक दानव को अपने बायें पाँव के नीचे जमीन पर दबाया हुआ है। भगवान की बाईं पिंडली की मांसपेशियों के आकार और आकृति से दानव पर दबाव का अनुमान लगाया जा सकता है। इस सब के बावजूद, भगवान के चेहरे पर शांत मुद्रा देखाई देती है। उनकी आँखें भक्तों को शांति प्रदान करती हैं। भगवान हनुमान का यह वर्णन इस देश में कहीं और नहीं है।