दक्षिण भारत के इस मंदिरों के शहर मदुरै का लंबा इतिहास रहा है। और इस शहर में कभी रात नहीं होती है, इसीलिये भी इसे जाना जाता है, तथा
तमिल में इसे "तुंगा नगरम" [தூங்காநகரம்] से जाना जाता है। नाम मदुरै शब्द ’मधु’ से व्युत्पन्न है। जिसका सामान्य अर्थ शहद (मधु),
अर्थात परम मीठा अमृत। यहाँ प्रचलित है कि स्वयं भगवान शिव ने इस शहर को आशीर्वाद दिया था, इसीलिए अमृत शहर के रूप में नामित हुआ था।
उत्तर प्रदेश में मथुरा भी अमृत शहर के रूप में नामित है, जबसे भगवान कृष्ण ने शहर को आशीर्वाद दिया था। शहर के अन्य नामों में से एक नाम
कूडल मं गरम, अलवाई है।
इस शहर पर कई राजवंशों का शासन था, और हमने अपने पहले पृष्ठों पर इस मंदिर शहर के इतिहास का संक्षिप्त विवरण दिया हुआ है। पाठकगण ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण शहर मदुरै के बारे में और इसे अधिक जानने हेतू पढ़ना पसंद करेगें, जोकि श्री मीनाक्षी देवी का भी देवालय है।
कई महत्वपूर्ण शासकों में से एक, श्री थिरुमलाई नायक ने 1623 और 1659 सीई के बीच मदुरै पर शासन किया था। वह सातवें और तेरह मदुरै नायक शासकों में सबसे प्रसिद्ध थे। मदुरै में तथा मदुरै के चारों ओर कई शानदार इमारतों और मंदिरों में उनका योगदान पाया जाता है। थिरुमलाई नायक कला और स्थापत्य कला के महान संरक्षक थे। उन्होंने पंड्या अवधि के कई पुराने मंदिरों का पुनर्निर्माण करवाया तथा कई मंदिरों को पुनर्निर्मित किया था। उनका महल, थिरुमलाई नायक पैलेस के रूप में जाना जाता है, जोकि एक दर्शनीय वास्तु कृति है, और दर्शकों को आकर्षित करती है।
चैत्र के महीने में यह मंदिरों का शहर बहुत सक्रिय हो जाता है सौर पंचांग अनुसार चैत्र के महीने का उत्सव मनाने के लिए अधिक लोकप्रिय 'चैत्र तिरुविज्ञ' [चैत्र उत्सव] मनाया जाता है। इस बारह दिन के उत्सव में, श्री मीनाक्षी [श्री पार्वती इस शहर की देवी] की श्री सुंदेरेर्स्वरर [भगवान शिव] के साथ शादी तथा सौर मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। और इससे अधिक श्री अज़गर का वैगई नदी में प्रवेश का उत्सव है। यह विश्वसनीय है, कि एक लाख से अधिक श्रद्धालु इस उत्सव में भाग लेते हैं। आज श्री मीनाक्षी देवी की शादी और वैगई नदी में श्री अज़गर प्रवेश का उत्सव चैत्र के महीने में मनाया जाता है, इससे पहले इन दो त्योहारों को क्रमशः माघ और चैत्र के महीने में मनाया जाता था।
श्री मीनाक्षी देवी की शादी शिव भक्तों का महत्वपूर्ण त्योहार है, वैगई नदी में अज़गर का प्रवेश करना, वैष्णवों का एक महत्वपूर्ण त्योहार है। इन दोनों
त्योहारों के दौरान मदुरै से और मदुरै के आस-पास से लोग इस पवित्र शहर में आतें हैं। पहला इससे राज्य की उत्पादकता दो महीनों के लिए प्रभावित
होती थी, दूसरा श्रद्धालुगण दो गुटों में बँट गए थे।। इसी वज़ह से थिरुमलाई नायक ने गहन विचार-विमर्श के बाद, उत्पादन नुकसान को कम करके
और भक्तों के दोनों गुटों के बीच एकता के लिए, इन दोनों त्योहारों का संयोजन किया और चैत्र के महीने में मनाया। आज तक थिरुमलाई नायक द्वारा
चलाई गई इस परंपरा का पालन किया जाता है।
इस बारे में अधिक जानकारी के लिए ह्में अपनी परंपरा और अज़गर कोविल के बारे में पता होना चाहिए।
मदुरै से बीस किलोमीटर की दूरी पर एक शांत वातावरण में श्री महाविष्णु का एक श्रेष्ठ मंदिर है। मंदिर पहाड़ी की तलहटी में स्थित है, जोकि जंगल से घिरा हुआ है। आज भी वन अच्छी तरह से संरक्षित है और मंदिर के स्थानीय प्राचीनता में बदलाव नहीं आया है। इस मंदिर में भगवान महाविष्णु की पुजा अज़गर के रूप में की जाती है, और उन्हें कळअज़गर और सुंदरराजार से भी जाना जाता है। पुरानों के अनुसार यह मंदिर भगवान धर्मदेवन ने बनवाया था। बाद में इसे पांडियन राजा मलयाथध्वज ने पुनर्निर्मित करवाया था। यह कहा जाता है कि इस मंदिर में राजा मलयाथध्वज श्री अज़गर की प्रार्थना की और देवी मीनाक्षी को अपनी बेटी के रूप में पाया था। इस देवता की प्रशंसा में बारह स्तवन में से छह स्तोत्र गाये थे। कई शासकों ने इस मंदिर के सुधार में योगदान दिया था। थिरुमलाई नायक ने भी इस मंदिर और देवता श्री सुंदरेरराज पेरूमाल के लिए कई कलात्मक मूल्यों में योगदान दिया था। तमिल में देवता अज़गर या अळगर के रूप में जाना जाता है।
इस मंदिर में चैत्र त्योहार दस दिनों के लिए मनाया जाता है। चैत्र में भगवान काल्ललगर कल्लर के रूप में अळगर कोविल से चलकर पूर्णिमा को मदुरै
तक पहुँचे और रास्ते में विभिन्न स्थानों पर रूके थे। अळगर बहन मीनाक्षी की शादी में भाग लेने के लिए आये थे। उनके शहर तक पहुंचने से पहले,
बहन की शादी खत्म हो चुकी थी, और इसीलिए उन्होंने अपने निवास पर लौटने का फैसला किया था। मदुरै शहर में उन्होंने नदी वैगई में कदम रखा।
यह मदुरै के लोगों की अळगर का स्वागत करने के लिए परंपरा है। अळगर का वैगई नदी में कदम रखने से पहले "एथिर सेवई" [प्रतिसेवा] त्योहार
मनाया जाता है।
वंदियुर से अळगर की वापसी पर धसवथरम त्योहार, वैगई नदी के उत्तरी भाग में, रामारयार मंडपम में रात भर मनाया जाता है। इस त्योहार के बाद, अळगर को अनन्थरयर पालकी में सुशोभित करके वीरा मंडपम मैसूर ले जाया जाता है। कल्लर के रूप में अगली सुबह अळगर फूलों से सजी डोली में, अळगर कोविल वापस आतें हैं।
यह कहा जाता है कि रास्ते में श्री सुंदरेरराज पेरूमाल ने अपनी बहन की शादी में चोर का रूप धारण किया जिससे कि कोई क़ीमती सामान लूट न ले। वो रात के दौरान तल्लकुलम में श्री श्रीनिवास पेरूमाल मंदिर में रूके थे। अगले दिन [पूर्णिमा को], अंदल से माला स्वीकार करने के बाद घोड़े की पीठ पर, वो यहाँ से वैगई गये थे।
यहाँ से अब अळगर 'वेती वेअर' पालकी में और वीरा मंडपम मैसूर से अनन्थरयर पालकी पर वैगई को गये थे। वैगई में श्री वीरराघाव पेरुमल उनके स्वागत के लिये इंतजार कर रहे थे। जब उन्हें पता चला कि उनकी बहन की शादी हो चुकी है, तब यहाँ उन्होंने अपने साथ लाये उपहार दिये और अपने निवास स्थान पर लौटने का निर्णय लिया।
तिरुमलाई नायक ने तल्लाकुलम में श्रीनिवास पेरूमाल मंदिर बनवाया था। इस मंदिर का महत्व इस तथ्य से देखा जा सकता है कि अळगर वैगई नदी के लिए आगे बढ़ने से पहले यहाँ ठहरता है। वो इस पेरूमाल की उपस्थिति में, श्रीविल्लपुत्तुर अंदल कोविल के अंदल द्वारा भेंट की माला स्वीकार करते हैं।
थिरुमलाई नायक ने इस मंदिर का निर्माण क्यों करवाया था, इसकी एक पौराणिक कथा है। इससे पहले हमें पता होना चाहिए कि उसने दुश्मन के हमले से उसे आगाह कर देने के लिये एक संचार प्रसारण प्रणाली का इस्तेमाल किया था। जिसमें संदेशों को धर्मशालाओं में कतार में लगी घंटीयों को बजाकर भेजे जाते थे। उन्होंने मार्ग के किनारे पर कई मंडपो का निर्माण किया, जोकि सराय के रूप में तथा खबरों के प्रसारण के लिए भी काम करेगा।
श्रीविल्लीपुथुर अंदल के प्रबल भक्त होने की वज़ह से, थिरुमलाई नायक मंदिर में पूजा-अर्चना के बाद ही नाश्ता खाते थे। मंदिर में पुजा की पूर्ति की सुचना प्राप्त करने के लिये ही, उन्होंने श्रीविल्लीपुथुर और मदुरै के बीच मंडपों का निर्माण करवाया था। एक बार जब पूजा खत्म हो गई है संदेश प्रसारण इन दो स्थानों के बीच में बनी सरायों से घंटीयाँ बजाकर प्रसारित किया जाता था।
नायक के अधिकारियों द्वारा मंडपों सहित धर्मशाला का आवधिक निरीक्षण किया जाता था। कभी-कभी तिरुमलाई नायक खुद भी निरीक्षण करते थे। इसी तरह के एक अवसर पर उन्होंने अपने महल के निकट मंडप का दौरा किया जोकि वर्तमान में तल्लाकुलम के रूप में जाना जाता है। उन्हें वहां भगवान वेंकटेश्वर की उपस्थिति महसूस हुई थी। जब क्षेत्र की खोज की गई तो वहाँ एक हनुमान जी की शिला मिली थी। इसीलिए थिरुमलाई नायक ने भगवान हनुमान और भगवान वेंकटेश्वर, दोनों के लिए मंदिर का निर्माण करने का निर्णय लिया। इसीलिए तल्लाकुलम मदुरै में श्री प्रसन्ना वेंकटाचलपति का मंदिर अस्तित्व में आया था।
आज भी आप देख सकतें हैं कि वहाँ मंदिर के मुख्य वास्तुकला के रूप में बड़े खंभों के साथ एक विशाल मंडप जोकि गर्भग्रह के सामने है। यहां मुख्य
देवता श्री प्रसन्ना वेंकटचलपथी है। लेकिन इस क्षेत्र के मुख्य आकर्षण भगवान हनुमान हैं।
भगवान हनुमान मुख्य मंदिर के बाईं ओर सटे हुये एक अलग मंदिर में स्थापित हैं। भगवान हनुमान को एक ही पत्थर पर आलंकारिक सजावटी
मेहराब के साथ तराशा गया है। भगवान लगभग छह फुट लंबे, बाएं हाथ में एक कमल कली लिये हुये, तथा दाहिने हाथ 'अभय मुद्रा' में है। उनके
कूल्हे में एक छोटा सा चाकू लगा हुआ है। उनकी पूंछ के अंत में एक घंटी सिर से ऊपर उठाई हुई है। प्रभु के कमल जैसे पांव चलने की मुद्रा में देखाई
देतें हैं। भगवान के हाथ और पांव सुंदर आभूषणों से सजे हुये हैं। भगवान की छाती यज्ञोपवीत व आभूषणों से सुशोभित हैं। उनकी गर्दन में मोतियों की
एक मनोहर माला शोभित है। कानों में बड़े-बड़े कुडंल कंधों को छु्ते हुये अच्छे लग रहे हैं। उनके बाल स्वच्छता से सिर के ऊपर संवरे हुये, और मजबूती
से आभूषण 'केशबंद' के साथ बंधे हुए हैं। उनके गाल अंदर की ओर खींचे हुये तथा आगे निकले हुए दांतों से उनकी उग्र मनोस्थति प्रदर्शित होती हैं।
लेकिन वहीं उनकी आंखों की चमक, हमें दिव्य कृपा प्रदान कर रही हैं।
यहाँ भगवान हनुमान मंदिर के सन्मुख एक अलग अहाता है, जिसमें एक खंभे पर शंख और चक्र खुदा हुआ है। जब इस क्षेत्र में भगवान हनुमान को स्थापित किया था, तो वो उग्र भाव में थे, इसीलिये बड़ों की सलाह पर इस स्तंभ को भगवान के सन्मुख स्थापित किया था। इस क्षेत्र के प्रभु हनुमान के शांत-स्वभाव में आने के बाद, उनकी पुजा-अर्चना से कई भक्तों को लाभ हुआ था।